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Tuesday 20 March 2012

झमेलिया वियाह(जगदीश प्रसाद मंडल)

जगदीशजीक तेसर नाटक ।ऐ सँ पहिले ‘मिथिलाक बेटी’ आ ‘कम्‍प्रोमाइज’ ।तीनू नाटक अपन औपन्‍यासिक विस्‍तार आ काव्‍यात्‍मक दृष्टि सँ परिपूर्ण ।लेखक समकालीन विश्‍व आ गद्यक पारस्‍परिकता सँ नीक जँका परिचित छथि ,तें हिनकर संपूर्ण रचना-संसार मे समकालीनता क’ वैभव पसरल अछि ,जत्‍ते वैचारिक ,ओतबे रूपगत ।समकालीनता क’ प्रति हिनकर झुकाव ‘झमेलिया वियाह’ के एकटा विशेष स्‍वरूप दैत छैक ।बारह सालक नेना क वियाहक ओरियाओन करैत माए –बापक चित्र जत्‍ते हँसबए छैक ,माएक बेमारी ओतबे सुन्‍न ।लेखकक रचना संसार मे काल-देवताक लेल विशेष जग्‍गह ,तें ई नाटक प्रहसनक प्रारंभिक रूपगुण देखाबितो किछु आर अछि ।पहिले दृश्‍य मे सुशीला कहैत छथिन ‘राजा दैवक कोन ठेकान ............अगर दुरभाखा पड़तै तँ सुभाखा किअए ने पड़ै छै ....’ आ राजा ,दैवक कर्तव्‍यक प्रति ई उदासीनता क’ अनुभव समस्‍त आस्तिकता आ भाग्‍यवादिता कें खंडित करैत अछि ।

सभ नाटक मे भरत मुनि के खोजनए जरूरी नइ ,ओना उत्‍साही विवेचक अर्थपकृति ,कार्यावस्‍था आ संधि क’ खोज करबे करता ,आ कोनो तत्‍व नइ मिलतेन त’ चिकडि़ उठता ।यद्यपि लेखकक उद्देश्‍य स्‍पष्‍ट अछि ।शास्‍त्रीय रूढि़ जेना –नान्‍दी पाठ ,मंगलाचरण ,प्रस्‍तावना ,भरतवाक्‍य क’ प्रति लेखक कोनो आकर्षण नइ देखबैत छथिन ।एतबे नइ पाश्‍चात्‍य नाट्य सिद्धांत कें हूबहू (देकसी) खोजए वला कें आलस सेहो लागतेन । तें ‘झमेलिया वियाह’ मे स्‍टीरियोटाईप संघर्ष देखबा क’ ईच्‍छुक भाए लोकनि कनेक बचि बचा के चलब ।विसंगति आ समस्‍या नाटकक फार्मूला के नाटक मे खोजए वला के सेहो झमेला बुझा सकैत छनि ,किएक त’ लेखक कोनो फार्मूला के स्‍वीकारि के नइ लिखैत छथिन ।

सीधा-सीधी अंकविहीन ‘झमेलिया वियाह’ नौ टा दृश्‍य मे बँटल अछि :अनेक दृश्‍यस्‍य एकांकी ।ने बहुत छोट ने नमहर ।तीन चारि घंटा के बिना झमेला के ‘झमेलिया वियाह’ । एकेटा परदा या बॉक्‍स सेट पर मंचित होमए योग्‍य ।मात्र घर या दरवज्‍जा क’ साज-सज्‍जा ।तेरह टा पुरूष्‍ा आ चारि टा स्‍त्री पात्रक नाटक ।छोट –छोट रसगर संवाद ,संघर्ष आ उतार-चढ़ावक संभावना सँ युक्‍त ।ने कतओ नमहर स्‍वगत ने नमहर संवाद ।असंभव दृश्‍य ,बाढि़ ,हाथी –घोड़ा ,कार –जीपक कोनो योजना नइ ।संवादक द्वारा विभिन्‍न बरियाती या यात्रा क’ कथा सँ जिज्ञासा आ आद्यांत आकर्षण ।क‍था मे चैता क’ रमणीयता आ मर्यादा ,तें जोगीरा क’ दिशाहीनता आ उद्दाम वेग नइ भेटत ।गंभीर साहित्‍य सर्वदा अपन समयक अन्‍न ,खून पसेनाक गंध सँ युक्‍त होइत अछि ।आ ‘झमेलिया वियाह’ सेहो पावनि-तिहार ,भनसाघरक फोड़न-छौंक ,सोयरी,श्‍मशान आ पकमानक बहुवर्णी गंध सँ युक्‍त अछि ,एकदम ओहिना जेहन पाब्‍लो नेरूदा विभिन्‍न कोटिक गंध के कविता मे खोजैत छथिन ।





‘झमेलिया वियाह’क सामाजिक आ सांस्‍कृतिक आधार पर कनेक विचार करू ।ई ओइ ठामक नाटक अछि ,जत’ कर्म पर जन्‍म,संयोग आ कालदेवता क’ अंकुश छैक ,जइ ठामक लोक मानैत छथिन जे कखनो मुँह सँ अवाच कथा नै निकाली ।दुरभखो विषाइ छै ।सामाजिक रूपें ओ वर्ग जेकर हँसी-खुशी माइटिक तर मे तोपा गेल अछि ।लैंगिक विचार हुनकर ई जे पुरूख आ स्‍त्रीगणक काज फुट-फुट अछि ।आ विकासक उदाहरण ई कि जइठीन मथटनकीक एकटा गोटी नै भेटै छै तइठीन साल भरि पथ-पानिक संग दवाइ खाएब पार लागत ?


मुदा जगदीशजी केवल सातत्‍य आ निरंतरताक लेखक नइ छथिन ,परिवर्तनक छोट छोट यति पर अपन कैमरा सँ फ्लैश दैत रहैत छथिन ।तें यथास्थितिवाद क’ लेल अभिशप्‍त होइतहुं यशोधर बूझैत छथिन जे मनुक्‍खक मनुखता गुण मे छिपल छै नै कि रंग मे ।आ सुशीला सामाजिक स्थिति पर बिगड़ैत छथिन कि विधाता कें चूक भेलनि जे मनुक्‍खो कें सींघ नांगरि किअए ने देलखिन । आ ई नाटक कालदेवताक ओइ खंड सँ जुड़ैत अछि जत’ पोता श्‍याम तेरह के थर्टिन आ तीन के थ्री कहैत छथिन ।ऐठाम अखबार आबैत छैक आ राजदेव देशभक्तिक परिभाषा के विस्‍तृत बनेबा लेल कटिबद्ध छथिन ।खेत मे पसीना चुबबैत खेतिहर ,सड़क पर पत्‍थर फोड़ैत बोनिहार ,धार मे नाओ खेबैत खेबनिहार सभ देश सेवा करैत अछि ,आ राजदेव सभ के देशभक्‍त मानैत छथिन ।


‘झमेलिया वियाह’क झमेला जिनगीक स्‍वाभाविक रंग परिवर्तन सँ उद्भूत अछि ,तें जीवनक सामान्‍य गतिविधिक चित्रण चलि रहल अछि बिना कथा के नीरस बनेने । नाटकक कथा विकास बिना कोनो बिहाडि़ के आगू बढ़ैत अछि ,मुदा लेखकीय कौशल सामान्‍य कथोपकथन के विशिष्‍ट बनबैत अछि ।पहिल दृश्‍य मे पति-पत्‍नीक बातचित मे हास्‍य क’ संग समय देवताक क्रूरता सानल बूझाइत अछि ।दोसर दृश्‍य मे झमेलिया अपन स्‍वाभाविक कैशोर्य सँ समय के द्वारा तोपल खुशी के खुनबा क’ प्रयास करैत अछि ।पहिल दृश्‍य मे व्‍यक्ति परिस्थिति क’ समक्ष मूक बनल अछि ,आ दोसर दृश्‍य मे व्‍यक्तित्‍व आ समयक संघर्ष कथा के आगू बढ़बैत कथा आ जिनगीक’ दिशा निर्धारित करैत अछि ।तेसर दृश्‍य देशभक्ति आ विधवाविवाह क’ प्रश्‍न के अर्थविस्‍तार दैत अछि ,आ ई नाटकक गति सँ बेशी जिनगी के गतिशील करबा लेल अनुप्राणित अछि ।

चारिम दृश्‍य मे राधेश्‍याम कहैत छथिन जे कम सँ कम तीनक मिलानी अवस होयबा के चाही । आ ,लेखक अत्‍यंत चुंबकीयता सँ नाटकीय कथा मे ओइ जिज्ञासा के समाविष्‍ट क’ दैत छथिन कि पता नइ मिलान भ’ पेतइ वा नइ ।ई जिज्ञासा बरियाती-सरियाती क’ मारिपीट आ समाजक कुकुड़चालि सँ निरंतर बनल रहैत छैक । आ पांचम दृश्‍य मे मिथिलाक’ ओ सनातन ‘खोटिकरमा’ पुराण ।दहेज ,बेटी ,वियाह आ घटकक चक्रव्‍यूह ! आ लेखकक कटुक्ति जे ने केवल मैथिल समाज बल्कि समकालीन बुद्धिजीवी आ आलोचना क’ लेल सेहो अकाट्य अछि :कत’ नै दलाली अछि ।एक्‍के शब्‍द कें जगह-जगह बदलि-बदलि सभ अपन-अपन हाथ सुतारैए ।

आ घटक भाय कें देखिऔन ।समए कें भागबा आ समै मे आगि लगबा के स्‍पष्‍ट दृश्‍य हुनके देखाइ छनि ।अपन नीच चेष्‍टा के छुपबैत बालगोविन्‍द के एक छिट्टा आर्शीवाद दैत छथिन ।बालगोविन्‍द के जाइते हुनकर आस्तिकता क’ रूपांतरण ऐ विन्‍दु पर होइत अछि ‘भगवान बड़ीटा छथिन ।जँ से नै रहितथि तँ पहाड़क खोह मे रहैबला कोना जीवैए ।अजगर कें अहार कत’ सँ अबै छै ।घास-पात मे फूल-फड़ केना लगै छै.................’बातचितक क्रम मे ओ बेरि बेरि बूझाबइ आ फरिछाबइ के काज करैत छथि ।मैथिल समाजक अगिलगओना ।महत्‍व देबइ त’ काजो क’ देत नइ त’ आगि लगा के छोड़त !!!!!


छठम दृश्‍य मे बाबा आ पोतीक बातचित आ बरियाती जएबा आ नइ जएबा क’ औचित्‍य पर मंथन । बाबा राजदेव निर्णय नइ ल’ पाबैत छथिन ।बरियाती जएबा क अनिवार्यता पर ओ बिचबिचहा मे छथिन ‘छइहो आ नहियो छै ।समाज मे दूनू चलै छै ।हमरे वियाह मे मामे टा बरियाती गेल रहथि ।‘ मुदा खाए ,पचबै आ दुइर होइ क’ कोनो समुचित निदान नइ मिलैत छैक ।बरियाती –सरियाती क’ व्‍यवहारशास्‍त्र बनबैत राजदेव आ कृष्‍णानंद कथे-विहनि मे ओझरा के रहि जाइत छथि ।दस बरिखक बच्‍चा क’ श्राद्ध मे रसगुल्‍ला मांगि मांगि के खाए वला हमर समाज वियाह मे किएक ने खायत ? तें कामेसर भाय निसॉ मे अढ़ाय-तीन सय रसगुल्‍ला आ किलो चारिएक माछ पचा गेलखिन आ रसगुल्‍लो सरबा एत’ ओत’ नइ आंते मे जा नुका रहल !!!

सातम दृश्‍य सबसँ नमहर अछि ,मुदा वियाह पूर्व वर आ कन्‍यागतक झीकातीरी आ घटकभाय द्वारा बरियाती गमनक विभिन्‍न रसगर प्रसंग सँ नाटक बोझिल नइ होइत छैक । आ घटक भाय पर ध्‍यान देबइ ,पूरा नाटक मे सबसँ बेशी मुहावरा ,लोकोक्ति ,कहबैका क’ प्रयोग ओएह करैत छथिन ।मात्र सातमे दृश्‍य के देखल जाए –खरमास (बैसाख जेठ) मे आगि-छाड़क डर रहै छै(अनुभव के बहाने बात मनेनइ) .....पुरूष नारीक संयोग सँ सृष्टिक निर्माण होइए(सिद्धांत क’ तरे ध्‍यान मूलविंदु सँ हटेनइ) ......आगूक विचार बढ़बै सॅ पहिने एक बेर चाह-पान भ’ जाए(भोगी आ लालुप समाजक प्रतिनिधि) ......जइ काज मे हाथ दइ छी ओइ काज कें कइये क’ छोड़ै छी (गर्वोक्ति).......जिनगी मे पहिल बेर एहेन फेरा लागल( कथा कहबा सँ पहिले ध्‍यान आकर्षित करबाक सफल प्रयास)....खाइ पीबैक बेरो भ’ गेल आ देहो हाथ अकडि़ गेल ......कुटुम नारायण तँ ठरलो खा क’ पेट भरि लेताह मुदा हमरा तँ कोनो गंजन गृहणी नहिये रखतीह ।(प्रकारांतर सँ अपन महत्‍व आ योगदान जनबैत ई ध्‍वनि जे हमरो कहू खाए लेल )
आठमो दृश्‍य मे बालगोविन्‍द ,यशोधर,भागेसर ,घटक भाय वियाह आ बरियाती क’ बुझौएल के निदान करबा हेतु प्रयासरत छथि ,आ लेखक घटकभाय के पूर्ण नांगट नइ बनबैत छथिन ,मुदा ओकर मीठ मीठ शब्‍दक निहितार्थ के नीक जँका खोलि दैत छथिन ।ऐ दृश्‍य मे बाजल बात ,मुहावरा ,लोकोक्ति आ प्रसंग ,उदाहरणक बलें ओ अपन बात मनबाबए लेल कटिबद्ध छथिन ।हुनकर कहबैका पर ध्‍यान दियओ – जमात करए करामात...जाबत बरतन तावत बरतन.....नै पान तँ पानक डंटिये सँ.....सतरह घाटक सुआद .......अनजान सुनजान महाकल्‍याण ।
मुदा घटकभाय क’ ऐ सुभाषितानि क’ की निहितार्थ ? ई अर्थ पढ़बा क’ लेल कोनो मेहनत करबा क’ जरूरी नइ ।ओ राधेश्‍याम के कहै छथिन ‘जखन बरियाती पहुंचैए तखन शर्बत ठंडा –गरम ,चाह-पान ,सिगरेट गुटका चलैए ।तइपर सँ पतोरा बान्‍हल जलपान ,तइ पर सँ पलाउओ आ भातो ,पूडि़ओ आ कचौडि़यो ,तइ पर सँ रंगविरंगक तरकारियो आ अचारो ,तइ पर सँ मिठाइयो आ माछो-मासु ,तइ पर द‍िहियो ,सकड़ौडि़ओ आ पनीरो चलैए ।‘

नाटकक नवम आ अंतिम दृश्‍य ।बाबा राजदेव आ पोती सुनीता क’ वार्तालाप ,आखिर ऐ वार्तालापक की औचित्‍य ? जगदीश जी सन सिद्धहस्‍त लेखक जानै छथिन जे बीसम आ एकैसम सदीक मिथिला पुरूषहीन भ’ चुकल छैक । यात्री जी क’ कविता पर विचार करैत कवयित्री अनामिका कहैत छथिन ‘बिहारक बेशी कनियां विस्‍थापित पतिगणक कनियां छथि ।‘सिंदूर तिलकित भाल’ ओइ ठाम सर्वदा चिंताक गहीर रेखाक पुंज रहल छैक । ....भूमंडलीकरणक बादो ई स्थिति अछि जे मिथिला ,तिरहुत ,वैशाली ,सारण आ चंपारण यानी गंगा पारक बिहारी गांव सब तरहें पुरूषविहीन भ’ गेल छैक ।......सब पिया परदेशी पिया छथि ओइ ठाम ।गांव मे बचल छथि –वृद्धा ,परित्‍यक्‍ता आ किशोरी सभ ।एहन किशोरी ,जेकर तुरते –तुरत वियाह भेलै या फेर नइ भेल होए ,भेलए ऐ दुआरे नइ जे दहेजक लेल पैसा नइ जुटल हेतइ ।‘ वियाह आ दहेजक ऐ समस्‍या क’ बीच सुनीता कें देखल जाए ।एक तरहें ओ लेखकक पूर्ण वैचारिक प्रतिनिधि अछि ।यद्यपि कखनो कखनो राजदेव ,कृष्‍णानंद आ यशोधर सेहो लेखकक विचार व्‍यक्‍त करैत छथिन ।सुनीता ,सुशीला आ राजदेव मिथिलाक स्‍थायी आबादी ,आ घटक भाय क’ बीच रहबा क’ लेल अभिशप्‍त पीढ़ी ।कृष्‍णानंद सन पढ़ल-लिखल युवकक स्‍थान मिथिला क’ गाम मे कोनो खास नइ ।आ लेखक बिना कोनो हो-हल्‍ला केने नाटक मे ऐ दुष्‍प्रवृत्ति के राखि देने छथि । जीवन आ नाटकक समांतरता ऐठाम समाप्‍त भ’ जाइत छैक आ दूटा अर्द्धवृत्‍त अपन चालि स्‍वभाव कें गमैत जुडि़ जाइत पूर्णवृत्‍त भ’ जाइत अछि ।

रवि भूषण पाठक

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