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Thursday 12 July 2012

कीर्तिलता : वैशिष्‍ट्य ,भाषा आ काव्‍यरूप

सौभाग्‍य सँ विद्यापतिक कीर्तिलता मे कोनो प्रक्षेप नइ भ' सकलै आ ओइ मे थोड़-थाक टटकापन बचल रहि गेलै ।ऐतिहासिक काव्‍य मे कीर्तिलताक स्‍थान किछु विशिष्‍ट अछि ।यद्यपि ईहो पुस्‍तक आश्रयदाता समसामयिक राजाक कीर्तिगानक उद्देश्‍य सँ लिखल गेल अछि आ कविजनोचित अलंकृत भाषा मे रचल गेल अछि ,तैयो एकर ऐतिहासिक तथ्‍य कल्पित घटना वा संभावना क' द्वारा प्रभावित नइ छैक ।कीर्तिसिंहक चरित्र पर्याप्‍त स्‍पष्‍ट आ उज्‍जवल रूप मे चित्रित छैक ।कविक लेखनी चित्रकारक ओइ तूलिकाक समान नइ  अछि जे छाया आ आलोकक सामंजस्‍य सँ चित्र कें ग्राह्य बनाबैत छैक ,‍बल्कि कुम्‍हारक ओइ माटिक समान अछि जे मूर्ति मे उभार कें स्‍पष्‍ट करैत अछि  ,आ हम सुनिर्मित मूर्तिक ऊंच-नीचक पूरेपूर अनुभव करैत छी ।ओइ कालक मुसलमान ,हिंदु ,सामंत ,नगर ,युद्ध ,सैन्‍यबलक एत्‍ते जीवंत आ यथार्थ वर्णन अन्‍यत्र अनुपलब्‍ध अछि ।यथार्थ चित्र बनेबा लेल कवि प्रत्‍येक उपलब्‍ध वस्‍तुक यथातथ्‍य वर्णन नइ करैत छथिन ,बल्कि आवश्‍यकतानुसार निर्वाचन ,चयन आ सामंजस्‍यक द्वारा चित्र के पूर्ण आ सजीव बनेबाक प्रयास केने छथि ।ताहि दुआरे ई काव्‍य इतिहासक मेंजन सँ निर्मित भेलाक बादो तथ्‍यनिरूपक पोथी नइ अछि ,बल्कि वास्‍तव मे काव्‍य अछि ।कमे ठाम कवि मात्र संभावना कें वृहदाकार बनेने छथिन ।कीर्तिसिंहक वीररूप आरो स्‍पष्‍ट भ' जाइत अछि आ जौनपुरक सुलतान फिरोजशाहक समक्ष हुनकर अतिविनम्र भक्तिमान रूप सेहो स्‍पष्‍ट होइत अछि ।ऐ चित्रण मे कवि कीर्तिसिंहक द्वितीय रूप के दबबए आ उज्‍जवलतर रूप कें चित्रित करबाक प्रयास नइ केने छथिन ,बल्कि ऐतिहासिक तथ्‍य कें ऐ प्रकारे राखबाक प्रयास केने छथिन कि जइ स्‍थान पर कथानायक झुकैत छथिन ,ओइ ठाम पाठकक सहानुभूति आ प्रशंसाक पात्र बनैत छथिन ।छंदक चयन मे सेहो कवि कुशलताक परिचय देने छथिन ।तथ्‍यात्‍मक विवरण के मोड़बा क' साथे ओ छंद के बदलि दैत छथिन आ पाठकक चित्‍त मे बसै वला एकरसता(मोनोटोनी) कम भ' जाइत अछि ।सब मिला कें कीर्तिलता अपन समयक अत्‍यंत सुंदर रूप प्रस्‍तुत करैत अछि ।ओ इतिहासक कविदृष्‍ट जीवंत रूप छैक ।ऐ पोथी मे ने काव्‍यक प्रति पक्षपात छैक ने इतिहासक उपेक्षा ,एकरा मे यथास्‍थान पाठकक ह्रदय मे करूणा ,सहानुभूति ,हास्‍य ,उत्‍सुकता आ उत्‍कंठा जगेबाक अद्भुत सामर्थ्‍य छैक ।


ऐ पोथी मे ओइ कथानक-रूढि़क प्रयोग अत्‍यल्‍प छैक जे संस्‍कृत,प्राकृत आ अपभ्रंशक रचना सभ मे एके उद्देश्‍य सँ रहैत छैक आ तथ्‍यात्‍मक जगत् सँ कम संबंध राखैत कल्‍पना-विलास दिसि पाठकक मोन मोडि़ दैत छैक ,मुदा एकर भाषा साहित्यिक परिनिष्ठित अपभ्रंश सँ भिन्‍न भाषा छैक ,किएक त' ऐ पोथी मे तत्‍कालीन मैथिलीक मिश्रण छैक ।............



कीर्तिलता अपना समयक अत्‍यंत सुंदर आ प्रामाणिक रचना छैक ।एकर भाषा मे पुरान मैथिलीक कतेको चिह्न भेटैत छैक , जेना विशेषण आ क्रिया मे स्‍त्रीलिंगक व्‍यवहार ,बहुवचन मे न्‍ही ,न्‍ह ,आ , या ,निर्विभक्तिक प्रयोग ,कर्ता मे ए ,जे क' प्रयोग वा परसर्गाभाव । तृतीया मे ए  आ हि ,पंचमी मे तहें आ सयो ,षष्‍ठी मे करि करो ,कर आ करेओ क' व्‍यवहार अछि ।सप्‍तमी मे ए ,ऍं आ हि  क' प्रयोग अछि ।सभ विभक्ति क' लेल चन्‍द्रविन्‍दुक प्रयोग अछि ।वर्तमानक काल उत्‍तम पुरूप मे ओ ,यों ,मध्‍यमपुरूष मे सी आ अन्‍रू पुरूष मे इ ,ए आ यि  क' प्रयोग अछि ।विधिक्रिया मे उ ,ऊँ आ ह ।भूतकाल मे इअ आ भविष्‍य मे इह विकरण प्रत्‍ययक प्रयोग ।कृदंतक लेल न्‍ते आ न्‍ता क' प्रयोग अछि ।पूर्वकालिकक लेल इ ,ए  क' व्‍यवहार आ स्‍वरक सानुनासिकीकरण छैक ।




एना बुझाइत अछि जे कीर्तिलता ओहिए शैली मे लिखल गेलै ,जइ मे चंदबरदायी 'पृथ्‍वीराजरासो' लिखलखिन ।ई भृंग आ भृंगीक संवाद रूप मे छैक ,आ एकरा मे संस्‍कृत आ प्राकृतक छंदक प्रयोग अछि ।..........विद्यापति सेहो प्रारंभ आ अंत मे संस्‍कृत छंदक प्रयोग केने छथि आ भाषा सेहो संस्‍कृत राखने छथिन ।जहिना रासो तहिना कीर्तिलता मे गाथा(गाहा) छंदक प्रयोग प्राकृत भाषा मे भेल छैक ।ई बात विशेष लक्ष्‍य करबाक अछि कि संस्‍कृत आ प्राकृतक पद आ गद्य तक मे तुक मिलेबाक प्रयास कएल गेल अछि आ ई अपभ्रंश -परंपराक अनुकूल अछि । पद्धरी छंदक ऐ ग्रंथ मे प्रयोग अछि ।अपभ्रंशक चरित काव्‍य मे पद्धरी क' एते प्रयोग छैक कि शैलीक नामे 'पद्धडि़या बंध' राखि देल गेलै ।अपभ्रंशक सुप्रसिद्ध कवि स्‍वयंभू एकटा पहिलुका कवि चतुर्मुख  कें ऐ बंध क' प्रवर्तक मानने छथिन ।कीर्तिलता मे ऐ छंदक एते व्‍यापक प्रयोग नइ छैक ,मुदा जे छैक ओ ऐ बात कें सूचित करबाक लेल पर्याप्‍त छैक कि ई ग्रंथ अपभ्रंश-काव्‍यक कथा साहित्‍यक परंपरा मे आबैत छैक ।ऐ प्रकारे स्‍पष्‍ट अछि कि विद्यापति ऐ ग्रंथ कें अपभ्रंश मे प्रचलित कथा-काव्‍यक श्रेणी मे राख' चाहलखिन ,तैयो ओ ऐ काव्‍य कें कथा नइ कहलखिन ,बल्कि 'काहाणी' कहलखिन ।एकर की कारण भ' सकैत छैक  ?


(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी)





Tuesday 10 July 2012

वर्षा ऋतु क' अद्भुत बिंब ।मौसमक सभ अंग-प्रत्‍यंगक चर्चा करैत एकटा अविस्‍मरणीय कविता ,जे बिल्‍कुल ह्रदय सँ बहरायल अछि आ कठिन सँ कठिन कसौटी पर उत्‍तम  कविता अछि । केवल बिजलौका आ बून्न्एि नए बगुला आ गरचून्नियो पर ध्‍यान ।ई चौमासा सरल भाषा मे एकटा अद्भुत काव्‍यदृश्‍यक निर्माण करैत अछि ,आ ककरो भ्रम नइ होए ऐ कविताक सफलता बून्‍नी आ चून्‍नीक तुक मे छैक ।ई सफलता चंदन जीक समग्र दृष्टिक अछि  ।ऐ कविताक तुलना मैथिली मे लिखल(बरखा पर) किछु प्रसिद्ध कविता सँ हेबाक चाही । चंदन झा जी कें बधाई ।

झमझम बरसै छै बून्नी
छै नाचि रहल गरचून्नी
सुनि के बेंगक टिटकारी
फँसलीह कबई कुमारी ।।

बगुला टकध्यान लगौने
बैसल छल आस लगौने
बुझू भेलै जबारी ओकरा
भरि पोख पेलकै टेंगरा ।।

कौआ केर भेटलैक चाली
बुझू जेना नूडल्स पाताली
घसि-घसि लोल पिजबैछै
खने खत्ता पानि उपछै छै ।।

जखने चमकल बिजलौका
साकांक्ष भेल घोंघही डोका
केयो जोड़ऽ लागल कुटमैती
केयो करय गेल पंचैती ।।

काँकोड़ बिल सँ बहरायल
ओ लगैछ कने अगुतायल
चाँगुर सँ महल बनेलक
रचि-रचि केहन सजेलक ।।

छै झूर-झमाने मूसरी
सोचै जे कोना के ससरी
घर-दुआरि ओकर दहेलै
बुझू अपटी खेत मे फँसलै ।।

केयो गाबि रहल चौमासा
ककरो लेल खेल तमाशा
हरखित छै खेत-पथार
जंगल,पहाड़ सभ धार ।।