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Tuesday 25 November 2014

अमरजी क' कविता आसिन

अमर जीक एकटा कविता ' आसिन' अपन अभिधात्‍मकता सँ भरपूर अछि ।जत्‍त्‍ो सूचना प्रथमद्रष्‍ट्या उपलब्‍ध छैक ,कवियो ओतबे कहैत छथिन ,कनियो बेशी नइ ,एहन स्थिति मे काव्‍यात्‍मकताक खोजबीन कएल जा सकैत छैक ।ऐ कविता मे ई स्‍थूलता बड्ड बेशी छैक ,जइ सूक्ष्‍मता क आवश्‍यकता कविता मे जरूरी होइत छैक ,से कत्‍त' छैक ईहो खोजब जरूरी ---------
आएल आसिन मास मनोरम
उमड़ल नव-नव-आस
अति मन्द मन्द बहि रहल पवन
पवनक गति पर
श्यामल श्यामल
मृदु शस्य राशि अछि झूमि रहल
झुकि-झुकि धरणिक पद चूमि रहल
से बूझि पड़ै जे
प्रकृति पहिरि चट हरित वसन,
लट पट, चंचल,
शंकित मन,
पंकिल पथ पर पद
बढ़ि रहल निरन्तर
क्रम पर क्रम चलि रहल
दुर तर प्रियतमृग,
मुख अरूणिम-प्रभ
उमड़ल अन्तरमे मधुर मधुर
आनन्दक पूर्वाभास
आएल आसिन मास मनोरम
उमड़ल नव नव आस।
जन
पुलकित मन
कै श्रद्धासँ पितरक तर्पण
पुनि भक्ति भावसँ नत शिर भ’
माताक चरण पर
कै अर्पण
किछु भाव सुमन
गद्गद् स्वरसँ अछि गाबि रहल
स्वर लहरी पर साकांक्ष श्रवण
उत्सुक लोचन
स्मृत पट पर अंकित
स्वर नर्तन
क्यौ
जय जय भैरवि असुर भयाउनि
गाबि गाबि
सुधि बिसरि अपन
दै ताल मधुर
किछु थिर कि थिर्राके
अछि नाचि रहल
प्रमुदित अग अग
शरदक निशि छवि
जगमग जगमग
पुलकित धरणी
विकसित शतदल
उल्लासित हृदय आकाश
आएल आसिन मास मनोरम
उमड़ल नव नव आस।