गीतांजलि क' एगारह टा कविता (अनुवादक राजेश मोहन)
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर कें अनुपम कृति "गीतांजलि" (मूल बांग्ला) केर पहिल कविताक मैथिली रूपांतरण करवाक प्रयत्न कैलहुं, कोनो त्रुटिक लेल क्षमाप्रार्थी छी। प्रस्तुत अछि:-
1
नाथ केर लीला अनमोल लगैए
अनंत कृपा हमरा पर कएलहुं,
खाली जीवन-घट सूखल छल
कृपा-रस बून्न बना बरखेलहुं।
अनंत कृपा हमरा पर कएलहुं,
खाली जीवन-घट सूखल छल
कृपा-रस बून्न बना बरखेलहुं।
हाथ मे छोट छीन पकड़ि बांसुरी
घूमथि पर्वत आ जमुना तट पर,
ओहि मुरली केर नव तान मे
नव पुष्प फुलायल जीवन वट पर।
घूमथि पर्वत आ जमुना तट पर,
ओहि मुरली केर नव तान मे
नव पुष्प फुलायल जीवन वट पर।
प्रभु हाथ अहांक मणि अछि पारस
उठितहि अशेष आनंद भेटैए,
अंतर्मन केर रचना- पट पर
कतेको अनुपम छंद उगैए।
उठितहि अशेष आनंद भेटैए,
अंतर्मन केर रचना- पट पर
कतेको अनुपम छंद उगैए।
भरि आंजुर कृपा केर दान
वासर-रैनि राखै छथि ध्यान,
नै जानि कतेको युग बीति गेल
मुदा अहांक नहि कम पिरीत भेल।
वासर-रैनि राखै छथि ध्यान,
नै जानि कतेको युग बीति गेल
मुदा अहांक नहि कम पिरीत भेल।
सदिखन स्नेह बना क' रखलहुं
नाथ केर लीला अनमोल लगैए।
नाथ केर लीला अनमोल लगैए।
2
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक अमर रचना "गीतांजली" केर दोसर कविता कें मैथिली रूपांतरण कयलहुं:----
***
***
जखन अहाँ कहै छी गाबू
हृदय गर्वक अनुभूति करैए,
हमर नोरायल आँखि सदिखन
मुखारविंद केर देखैत रहैए।
हृदय गर्वक अनुभूति करैए,
हमर नोरायल आँखि सदिखन
मुखारविंद केर देखैत रहैए।
मोन होइछ जे अवगुण अछि हमरा मे
ओकरे स्वर आ गीत बनाबी
जे अमृत बनि बसय प्राण मे,
जीवनक साधना सभ
करिते रही अविरल हम
ऊड़िते रही ल' खग -पाँखि तान कें।
ओकरे स्वर आ गीत बनाबी
जे अमृत बनि बसय प्राण मे,
जीवनक साधना सभ
करिते रही अविरल हम
ऊड़िते रही ल' खग -पाँखि तान कें।
हमर गीतक स्वर सँ मुग्घ होइत छी
अहाँ कहैत छी ई उत्तम छल
ओकरे सोझाँ अहाँ अवैत छी,
हमर तुच्छ मोन
जिनका नहिं देखि सकैए
ई गीत हुनका देखि लैत अछि।
अहाँ कहैत छी ई उत्तम छल
ओकरे सोझाँ अहाँ अवैत छी,
हमर तुच्छ मोन
जिनका नहिं देखि सकैए
ई गीत हुनका देखि लैत अछि।
चरणक स्पर्श करिते आबि
वड़ सुख हमरा प्रदान करैत अछि।
हिनके देल सभ राग मधुर सँ
हिनका लेल उठैत हर सुर सँ
हम अपना कें बिसरि रहल छी
अपन देव कें देखूें हम "सखा" कहैत छी।।।।।
वड़ सुख हमरा प्रदान करैत अछि।
हिनके देल सभ राग मधुर सँ
हिनका लेल उठैत हर सुर सँ
हम अपना कें बिसरि रहल छी
अपन देव कें देखूें हम "सखा" कहैत छी।।।।।
3
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक अनमोल रचना "गीतांजलि" केर तेसर कविता क मैथिली रूपांतरण केलहुं:--
सुनि अहाँकेर गायन गुण कें
भेलहुं अचंभित ओहि
मधुरमय गीतक तान सुनि कें।
भेलहुं अचंभित ओहि
मधुरमय गीतक तान सुनि कें।
सुरप्रभा सँ जगत,आलोकित भेल अछि,
स्वर तरंग आकाश मे पसरि गेल अछि,
व्याकुल भए जे पाथर टूटल,
अहाँक स्वर कम्पन सँ,
ओ खसथि बहथि संगीत सरित गान सुनि कें।
स्वर तरंग आकाश मे पसरि गेल अछि,
व्याकुल भए जे पाथर टूटल,
अहाँक स्वर कम्पन सँ,
ओ खसथि बहथि संगीत सरित गान सुनि कें।
मोन होईछ हमहूं गाबू, ओहि सुर में
बसा ली ओ मधुर राग हृदयक आँजुर में।
बसा ली ओ मधुर राग हृदयक आँजुर में।
जे कह' चाही ओ कहि ने सकै छी,
हारि क' मोनहि मोन कानै छी,
फँसि गेलहुँ हम अहाँक दंड में
भूतिआयल छी अपन मलिन छंद में।
हारि क' मोनहि मोन कानै छी,
फँसि गेलहुँ हम अहाँक दंड में
भूतिआयल छी अपन मलिन छंद में।
4
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक कृति "गीतांजली"
केर चारिम कविताक मैथिली रूपांतरण:-
केर चारिम कविताक मैथिली रूपांतरण:-
अहाँक पोर-पोर मे पारस पाथरि,
बनि बरखै जेना सरस रस बादरि,
हे प्राण प्रिय एकरा नहिं जाउ बिसरि,
रहै तन निर्मल सभ दिवस-वासरि।
बनि बरखै जेना सरस रस बादरि,
हे प्राण प्रिय एकरा नहिं जाउ बिसरि,
रहै तन निर्मल सभ दिवस-वासरि।
कि मोने अहाँ बसल रहै छी,
रहि एकर ज्ञान सदिखन हमरा,
नहिं जाइ बिसरि हम एहि बातकें,
तकर रहै ध्यान सदिखन हमरा।
रहि एकर ज्ञान सदिखन हमरा,
नहिं जाइ बिसरि हम एहि बातकें,
तकर रहै ध्यान सदिखन हमरा।
भ'ल चिंता हमरा बड़जोर रहए,
मुदा फूसि आडंबर नै थोर रहए।
मुदा फूसि आडंबर नै थोर रहए।
हृदय मे अहीं रमैत रही,
मोन पर शासन करैत रही।
मोन पर शासन करैत रही।
कुटिल द्वेष सभ होइछ अमंगल,
करू स्नेहक रस सँ ओकरा निर्मल।
सदिखन एकरे प्रचार करी हम,
छी अहीं हमर बल आ संबल।
करू स्नेहक रस सँ ओकरा निर्मल।
सदिखन एकरे प्रचार करी हम,
छी अहीं हमर बल आ संबल।
5
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक कृति ""गीतांजलि"" केर पाँचम कविताक मैथिली रूपांतरण:-
चाह अछि किछु क्षण संगहि रहि,
छोड़ि एखन सँ सभ काज धाज,
बूझि पड़ैएँ हमरा छोड़ि परायव,
करू अनाथ जुनि हमरा हे नाथ।
छोड़ि एखन सँ सभ काज धाज,
बूझि पड़ैएँ हमरा छोड़ि परायव,
करू अनाथ जुनि हमरा हे नाथ।
अहाँक मुंह बिनु देखल,
शांति हमरा नहिं भेटि रहल,
ई कठिन संसार समुद्रक
भार हमरा सँ नहिं उठि रहल।
शांति हमरा नहिं भेटि रहल,
ई कठिन संसार समुद्रक
भार हमरा सँ नहिं उठि रहल।
हमर जीवन केर उपवन मे,
चारू कात बसंत आयल अछि।
बसातक संगीत सूनि रहल छी,
सभ दिश सुगंध मधुर छायल अछि।
कुंज मे मधुकर गूंजि रहल,
लागथि वीणाक तार झनकल।
आजु अहींक सम्मुख बैसी,
कहथि हमरा सँ आत्मा आ प्राण,
जीवन समर्पण केर गीत कें गाबी,
हमर दु: खक ई एकेटा निदान।
चारू कात बसंत आयल अछि।
बसातक संगीत सूनि रहल छी,
सभ दिश सुगंध मधुर छायल अछि।
कुंज मे मधुकर गूंजि रहल,
लागथि वीणाक तार झनकल।
आजु अहींक सम्मुख बैसी,
कहथि हमरा सँ आत्मा आ प्राण,
जीवन समर्पण केर गीत कें गाबी,
हमर दु: खक ई एकेटा निदान।
6
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक अनमोल कृति
""गीतांजली"" केर छठम कविताक मैथिली रूपांतरण ---:
""गीतांजली"" केर छठम कविताक मैथिली रूपांतरण ---:
तोड़ि लिअ' हमरा, जुनि करू बिलंब,
कतहु भूमि खसि पड़य ने फूल
सदिखन मोन गड़ल ई शूल।
तोड़ि लिअ' हे ! तोड़ि लिअ' ई फूल।
अहाँक हार मे गूंथल जायत
या ओहिना रहि जायत,
जौं अहाँक हाथे टूटत
ल' मुक्ति परम पद पायत।
अछि भाग्य एतेको अधलाह नहि।
हे! छथि एतबो छिड़ियाह नहि।
जुनि जाऊ हमरा सँ मुंह फेरि,
तोड़ि लिअ', आब जुनि करू बिलंब।
की जानि कखन दिन जायत बीति
होयत सगर अन्हार यौ।
अहाँक पूजन केर घड़ी अनमोल
भ' जाइ कतहु ने बेकार यौ।
जतबे रंग भरल हमरा मे,
जतबे गंध रहल हमरा मे,
अहाँक सेवा मे अर्पित अछि-
हम सिसकि के कहि रहल छी-
तोड़ि लिअ', हमरा अहाँ तोड़ि लिअ',
आब और जुनि करू बिलंब
समय रहितहि हमरा अपना सँ हे!
जोड़ि लिअ', हिय सँ जोड़ि लिअ'॥
कतहु भूमि खसि पड़य ने फूल
सदिखन मोन गड़ल ई शूल।
तोड़ि लिअ' हे ! तोड़ि लिअ' ई फूल।
अहाँक हार मे गूंथल जायत
या ओहिना रहि जायत,
जौं अहाँक हाथे टूटत
ल' मुक्ति परम पद पायत।
अछि भाग्य एतेको अधलाह नहि।
हे! छथि एतबो छिड़ियाह नहि।
जुनि जाऊ हमरा सँ मुंह फेरि,
तोड़ि लिअ', आब जुनि करू बिलंब।
की जानि कखन दिन जायत बीति
होयत सगर अन्हार यौ।
अहाँक पूजन केर घड़ी अनमोल
भ' जाइ कतहु ने बेकार यौ।
जतबे रंग भरल हमरा मे,
जतबे गंध रहल हमरा मे,
अहाँक सेवा मे अर्पित अछि-
हम सिसकि के कहि रहल छी-
तोड़ि लिअ', हमरा अहाँ तोड़ि लिअ',
आब और जुनि करू बिलंब
समय रहितहि हमरा अपना सँ हे!
जोड़ि लिअ', हिय सँ जोड़ि लिअ'॥
7
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक रचना
""गीतांजली"" केर सातम कविताक मैथिली रूपांतरण:-----
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक रचना
""गीतांजली"" केर सातम कविताक मैथिली रूपांतरण:-----
हम छोड़ि देल ओहि स्वर जाहि मे
सजल धजल अहंकार छल,
अपने सम्मुख ओ आयल अछि
छोड़ि क' अहं अलंकारक पल।
ओ बाट रोकि क' ठाढ भेल
जे आत्म-मिलन केर बाधा छल,
चीत्कार सँ करथि शांति भंग
ओ बिनु स्वर संगीतक तार छल।
हमरा कवित्वक छल मिथ्या धमंड
अहांक राग ल'ग ओकर की गिनती?
हमर चाह अछि चरण-रज पाबी
अपनेक करिते रही सदिखन विनती।
करिते जीवन साधना सभ कें
सरल वाद्य मधुर स्वर पायव,
जतय खोट हो हमर गीत मे
अहींक आशीष सँ सुधर भए गायब।
सजल धजल अहंकार छल,
अपने सम्मुख ओ आयल अछि
छोड़ि क' अहं अलंकारक पल।
ओ बाट रोकि क' ठाढ भेल
जे आत्म-मिलन केर बाधा छल,
चीत्कार सँ करथि शांति भंग
ओ बिनु स्वर संगीतक तार छल।
हमरा कवित्वक छल मिथ्या धमंड
अहांक राग ल'ग ओकर की गिनती?
हमर चाह अछि चरण-रज पाबी
अपनेक करिते रही सदिखन विनती।
करिते जीवन साधना सभ कें
सरल वाद्य मधुर स्वर पायव,
जतय खोट हो हमर गीत मे
अहींक आशीष सँ सुधर भए गायब।
8
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोरक कृति ""गीतांजलि"" क आठम कविताक मैथिली रूपांतरण:----
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोरक कृति ""गीतांजलि"" क आठम कविताक मैथिली रूपांतरण:----
अहां जौं पहिरायव मणि-कांचन हार
देव नेना कें राजसी वस्त्र
आ आभूषण।
फेर हुनका कोना रहतन्हि,
बाल-सुलभ क्रीड़ा सँ आकर्षण।
ओ माटि सँ दूर रह' चाहथि,
रहि रहि एतबहि करथि चिंतन,
कतहु भ' ने जाइ मलिन हुनकर तन।
रहै छथि सदिखन सभ सँ दूर,
एहि सोच मे डूबल रहै छथि,
कतहु भ' ने जाइ मैल अभरन।
देव नेना कें राजसी वस्त्र
आ आभूषण।
फेर हुनका कोना रहतन्हि,
बाल-सुलभ क्रीड़ा सँ आकर्षण।
ओ माटि सँ दूर रह' चाहथि,
रहि रहि एतबहि करथि चिंतन,
कतहु भ' ने जाइ मलिन हुनकर तन।
रहै छथि सदिखन सभ सँ दूर,
एहि सोच मे डूबल रहै छथि,
कतहु भ' ने जाइ मैल अभरन।
करू स्वतंत्र परावथि ओ,
शीशु खेल संग जागथि ओ,
लेटावथि मांटि-वाध-बोन,
संसारक भीड़ मे घूमि हेरावथि,
गीत संगीत सुनि हर्षित हृदयक कोण।
जे चाहथि पावि लेथि ओ,
संवेत सुर मे गावि लेथि ओ।
जुनि देवन्हि हुनका मोतीक माला,
नहिं पहिरायव राज-वस्त्र-आभूषण।
शीशु खेल संग जागथि ओ,
लेटावथि मांटि-वाध-बोन,
संसारक भीड़ मे घूमि हेरावथि,
गीत संगीत सुनि हर्षित हृदयक कोण।
जे चाहथि पावि लेथि ओ,
संवेत सुर मे गावि लेथि ओ।
जुनि देवन्हि हुनका मोतीक माला,
नहिं पहिरायव राज-वस्त्र-आभूषण।
9
कवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक रचना ""गीतांजली"" केर नवम कविताक मैथिली रूपांतरण:---
कान्ह उठा क' निज अवलंबन
बन्न आब कर' पड़त,
याचना केर अपन बाट कें
आब आर नहि चल' पड़त।
जीवनक भार अछि अहींक चरण,
अर्पित क' चलि देब खुशी,
ताकब नहि पाछाँ घूरि हम,
नहि पछतायव बिनु भेल दुखी।
कान्ह उठा निज अवलंबन
बन्न आब कर' पड़त।
कामना भरल शांस त',
मिझा दैत अछि दीप केर बाती,
जिनका स्पर्श करथि ओ
हुनके मलिन क' दैत छथि,
भ'ल हिनका कोना स्वीकारू
अपवित्र बनल जे थाती।
हम पाबि अहां सँ सिनेहक उपहार
जाहि में हो अहाँक झनकार।
बस, ओहि उपहार कें करब स्वीकार।
कान्ह उठा क' अपन अवलंबन,
बनन् आब कर' पड़त।
बन्न आब कर' पड़त,
याचना केर अपन बाट कें
आब आर नहि चल' पड़त।
जीवनक भार अछि अहींक चरण,
अर्पित क' चलि देब खुशी,
ताकब नहि पाछाँ घूरि हम,
नहि पछतायव बिनु भेल दुखी।
कान्ह उठा निज अवलंबन
बन्न आब कर' पड़त।
कामना भरल शांस त',
मिझा दैत अछि दीप केर बाती,
जिनका स्पर्श करथि ओ
हुनके मलिन क' दैत छथि,
भ'ल हिनका कोना स्वीकारू
अपवित्र बनल जे थाती।
हम पाबि अहां सँ सिनेहक उपहार
जाहि में हो अहाँक झनकार।
बस, ओहि उपहार कें करब स्वीकार।
कान्ह उठा क' अपन अवलंबन,
बनन् आब कर' पड़त।
10
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक अनमोल रचना ""गीतांजलि"" केर दशम कविताक मैथिली रूपांतरण:------
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक अनमोल रचना ""गीतांजलि"" केर दशम कविताक मैथिली रूपांतरण:------
जतय बसय छथि सभ सँ दीन,
ओतहि पड़ैत अछि अहाँक चरण,
जे छथि सभ दिन सँ साधनहीन,
हुनके अहाँ करै छी वरण।
रहैत छथि ओ सभ सँ पाछू,
अकिंचन जीवन रहथि मलिन।
ओतहि पड़ैत अछि अहाँक चरण,
जे छथि सभ दिन सँ साधनहीन,
हुनके अहाँ करै छी वरण।
रहैत छथि ओ सभ सँ पाछू,
अकिंचन जीवन रहथि मलिन।
पहुंचि रहल नहि हुनका ल'ग वंदन,
कतहु बाट मे अटकि जाइत छै,
नहिं क' सकत ओ अभिनंदन,
अहांक चरण चिन्हक अनुसरण।
पहुंचि जाइत छी अहां ओतहि,
बसि रहल छथि निर्धन जतहि,
हे! अहां रमैत छी हुनके मध्य,
जे छथि विप्र आ साधनहीन।
कतहु बाट मे अटकि जाइत छै,
नहिं क' सकत ओ अभिनंदन,
अहांक चरण चिन्हक अनुसरण।
पहुंचि जाइत छी अहां ओतहि,
बसि रहल छथि निर्धन जतहि,
हे! अहां रमैत छी हुनके मध्य,
जे छथि विप्र आ साधनहीन।
ओतहि हम नहिं कहियो पहुंचलहुं,
जखन चललहुं मांझे धार मे फँसलहुं।
अज्ञानक अन्हार रोकि लैत अछि,
आश मिलन कें तोड़ि दैत अछि।
पहिरि सिनेहक अहां अभरन,
त्यागि सगर सौंदर्यक आभूषण,
ओतहि अहां करि रहलहुं विचरण,
जत' रहै छथि निरीह दुखित जन।
जखन चललहुं मांझे धार मे फँसलहुं।
अज्ञानक अन्हार रोकि लैत अछि,
आश मिलन कें तोड़ि दैत अछि।
पहिरि सिनेहक अहां अभरन,
त्यागि सगर सौंदर्यक आभूषण,
ओतहि अहां करि रहलहुं विचरण,
जत' रहै छथि निरीह दुखित जन।
धन साधन केर कोनो थाह नहिं,
अहां छोड़ि परावी एकर चाह नहि,
हे नाथ! हम ई बिसरि रहल छी,
हुनका सँ अहांक कोना छीनि सकै छी,
हुनके अहां पर पहिल अधिकार छै,
हम कएल जतन सभटा बेकार छै,
अपने छी दीनक नाथ, ओ छथि दीन,
अहां सधल ओ सभ साधनहीन।
अहां छोड़ि परावी एकर चाह नहि,
हे नाथ! हम ई बिसरि रहल छी,
हुनका सँ अहांक कोना छीनि सकै छी,
हुनके अहां पर पहिल अधिकार छै,
हम कएल जतन सभटा बेकार छै,
अपने छी दीनक नाथ, ओ छथि दीन,
अहां सधल ओ सभ साधनहीन।
11
कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोरक अनमोल कृति ""गीतांजलि"" के एगारहम कविताक मैथिली रूपांतरण:--------
अराधना भजन आ पूजन सभ छोड़ि,
बंद करू मंदिरक द्वार यौ,
छोड़ि दिऔ सभ ठामहि ठाम,
अन्हारि मे छी किए ठाढ यौ।
बंद करू मंदिरक द्वार यौ,
छोड़ि दिऔ सभ ठामहि ठाम,
अन्हारि मे छी किए ठाढ यौ।
चुपेचाप मुन्हारि कोन मे,
किनका पूजि रहल छी मोन मे,
खोलू आँखि ताकू एम्हर,
की भगवान रहै छथि घ'र मे?
किनका पूजि रहल छी मोन मे,
खोलू आँखि ताकू एम्हर,
की भगवान रहै छथि घ'र मे?
ओ गेला ओतहि जत' किसान खटै छथि,
सानल माटि संग प्रेम बाँटै छथि,
तोड़थि जोन बाट केर पाथर,
भरल माथ घाम संग लथर-पथर,
भगवान बसै छथि मांटि सनल,
रौदी बरखा संग बहल ह'र मे।
सानल माटि संग प्रेम बाँटै छथि,
तोड़थि जोन बाट केर पाथर,
भरल माथ घाम संग लथर-पथर,
भगवान बसै छथि मांटि सनल,
रौदी बरखा संग बहल ह'र मे।
अहूं माटि सँ सिनेह लगाबू
या श्रमजीवक कोदारि चलाबू,
सृष्टि बान्ह संग जखन बन्हायव
तखनहि अहां प्रभु कें पायव,
ध्यान छोड़ू आ तेजू फूल
सेवक बनि माँटिक लगाबू धूल,
एकर फल मे देव सत्य पायव
मोक्ष कें पावि जीवन सँ तरि जायव।
या श्रमजीवक कोदारि चलाबू,
सृष्टि बान्ह संग जखन बन्हायव
तखनहि अहां प्रभु कें पायव,
ध्यान छोड़ू आ तेजू फूल
सेवक बनि माँटिक लगाबू धूल,
एकर फल मे देव सत्य पायव
मोक्ष कें पावि जीवन सँ तरि जायव।
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