गजल
मुइलहा चाममे दरद नै होइ छै
सुखक जिनगी कतौ नगद नै होइ छै
लूटऽ दे इज्जतसँ शोर केलासँ की
भीड़ छै बड मुदा मरद नै होइ छै
आगिमे जड़ल छै देशकेँ लोक सब
क्रोधकेँ खूनमे शरद नै होइ छै
लाखमे एकटा होइ छै काजकेँ
सगर बाछा तँ नव बरद नै होइ छै
आश रहतै तँ नै हारि पेबै "अमित"
दैव सदिखन तँ बेदरद नै होइ छै
फाइलुन
212 चारि बेर सब पाँतिमे
बहरे-मुतदारिक
अमित मिश्र
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